Monday, May 30, 2016

लोग अपनों के हुनर पर फब्तियां कसने लगे




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लोग अपनों के हुनर पर फब्तियां कसने लगे,
आस्तीं में सांप थे कुछ बे-वजह डसने लगे |

उन गुनाहों का सफ़र कैसे चले जो सर न हों,
जुर्म करता वो मज़े में बे-कसूर फसने लगे |

आजकल माहौल जीने का कहाँ शहरों में अब,
 
देख लुटती अस्मतें अब शहरिये हंसने लगे |

जो खिलाफत ज़ुल्म की करता बुलंद आवाज़ में,
इक शिकंजा उनपे रक्षक बे-सबब कसने लगे |

क्या कोई समझेगा दह्शत से भरी इस ज़िन्द को,
हर तरफ दहशत-ज़दा अपनों में ही बसने लगे |
 

हर्ष महाजन

०००

2122 2122 2122 212


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