Sunday, January 8, 2017

हर तरफ रस्में निभा मुजरिम सा क्यूँ दिखता हूँ मैं


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हर तरफ रस्में निभा मुजरिम सा क्यूँ दिखता हूँ मैं,
जाने इतना कागजों पर दर्द क्यूँ लिखता हूँ मैं |
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छू के भी देखी बुलंदी आसमां की थी कभी,
अब समंदर में यूँ दरिया बनके क्यूँ छिपता हूँ मैं |

इतनी उल्फत इतनी चाहत रिश्तों में दस्तूर भी,
है चमन इतना हसीं तो वीराँ क्यूँ दिखता हूँ मैं |

शख्स जिनकी रूह तक खौला किया मेरे लिए,
था शज़र तो शाख बन अब ऐसे क्यूँ झुकता हूँ मैं |

हर तरफ जब साजों पर चलती मुसलसल इक ग़ज़ल,
तो उतर कर हर्फों में ऐ ‘हर्ष’ क्यूँ बिकता हूँ मैं |

हर्ष महाजन


बहर ..
2122 2122 2122 212

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